हृदय के कार्य - Functions of the Heart

हृदय एक पम्प की तरह कार्य करता है जो खून को अन्दर खींचता है तथा धमनियों के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचता है।

हृदय शरीर के सभी हिस्सों से उर्ध्व महाशिरा तथा निन्म महाशिरा के द्वारा अशुद्ध खून की दॉए एट्रियम में इकट्ठा करता है। पूरी तरह से भर जाने पर दॉयें एट्रियम में संकुचन होता है और रक्त दाँए वेन्ट्रिकल मे आ जाता है। इस प्रक्रिया के बाद ट्राइकस्पिड वालव बन्द हो जाता है। इसके बाद दायें वेन्ट्रिकल के संकुचित होने पर रक्त पल्मोनरी वाल्व से होकर फुफ्फसीय धमनी आगे जाकर उपशाखाओं में विभक्त हो जाती है जिसे दॉयी एवं बॉयी फुफ्फसीय धमनी कहा जाता है। इन धमनियों का कार्य है अशुद्ध रक्त को शुद्ध करने के लिए फुफ्फसो तक ले जाना। फेफड़ों से शुद्ध रक्त चार फुफ्फसीय शिराओं के माध्यम से हृदय के बॉयी एट्रियम में संकुचन की किया होती है धक्के के साथ बॉयें एट्रियों वेन्ट्रिकुलर वाल्व से होते हुए बॉये वेन्ट्रिकल में आता है।


इसके बाद एट्रियों वेन्ट्रिकुलर वाल्व बन्द हो जाता है। इसके बाद बॉया वेन्ट्रिकल संकुचित होता है, जिसके कारण शुद्ध रक्त महाधमनी में पहुँचता है। महाधमनी शुद्ध रक्त को सम्पूर्ण शरीर के अंगो तक पहुँचाने का कार्य करता है। जो जिज्ञासु पाठकों आपने जाना है कि जिस प्रकार से हमारा हृदय निरन्तर एक पम्पिंग मशीन की तरह कार्य करता रहता है।



हृदय की कार्यिकी


हृदय रक्त संचरण किया का सबसे मुख्य अंग है यह नाशपती के आकार का मांशपेशियों की एक थैली जैसा होता है। हाथ की मुट्ठी बाँधने पर जितनी बड़ी होती है, इसका आकार उतना ही बड़ा होता है। इसका निर्माण धारीदार (Striped) एवं अनैच्छिक मांशपेशी (involuntar muscles) द्वारा होता है। वक्षोस्थि से कुछ पीछे की ओर तथा बायें हटकर दोनों फेफड़ो के बीच इसकी स्थिती है। यह पाचवी, छठी, सातवी, तथ आठवीं पृष्ठ देशीय - केशरूका के पीछे रहता है इसका शिरोभाग बायें क्षेपक कोष्ठ से बनता है। निम्न भाग की अपेक्षा इसका ऊपरी भाग कुछ अधिक चौड़ा होता है। इस पर एक झिल्लीमय आवरण चढ़ा रहता है। जिसे हृदयावरण (Periaerdium) कहते हैं। इस झिल्ली से एक प्रकार का रस निकलता है जिसके कारण हृत्पिण्ड का ऊपरी भाग आर्द्र (तरल) बना रहता है।



हृत्पिण्ड का भीतरी भाग खोखला रहता है। यह भाग एक सूक्ष्म मांशपेशी की झिल्ली से ढका तथा चारो भागो में विभक्त रहता है। इस भाग में कमश: ऊपर नीचे तथा दॉये -बॉये 4 प्रकोष्ठ (Chambers) रहते हैं। ऊपर के दायें-बायें हृदकोषों को उर्ध्व हृदकोष्ठ अथवा ग्राहक-कोष्ठ (Auricle) कहा जाता है तथा नीचे के दायें-बायें दोनों हृदकोष्ठों को क्षेपक कोष्ठ (Ventricle) कहते हैं। इस प्रकार हृत्पिण्ड दोनों ओर दायें तथा बायें ग्राहक कोष्ठ तथा क्षेपक कोष्ठों को अलग करने वाली पेशी से बना हुआ है। ग्राहक कोष्ठ से क्षेपक कोष्ठ में रक्त आने के लिए हर ओर एक-एक छेद रहता है तथा इन छेदो में एक-एक कपाट (Value) रहता है। ये कपाट एक ही ओर इस प्रकार से खुलते हैं कि ग्राहक कोष्ठ से रक्त क्षेपक कोष्ठ में ही आ सकता है परन्तु इसमें लौटकर जा नही . सकता, क्योंकि उस समय यह कपाट अपने आप बन्द हो जाता है। दायीं ओर के दद्वार में तीन कपाट है। अतः इसे त्रिकपाट कहते हैं। बायीं ओर के द्वार में केवल दो ही कपाट होते है. अतः इसे द्विकपाट कहा जाता है।


इससे ग्राहक कोष्ठों का काम रक्त को ग्रहण करना तथा क्षेपक कोष्ठक का काम रक्त को निकालना है। दायीं ओर हमेशा अशुद्ध रक्त भरा रहता है। इन कोष्ठो का आपस में कोई संबंध नही होता हृदय के संकोच के कारण ही उसके भीतर भरा हुआ रक्त महाधमनी ( Aorta ) तथा अन्य धमनियों में होकर शरीर के अंग प्रत्यंग तथा उनकी कोषाओं (Cells) में पहुँचकर उन्हें पुष्टि प्रदान करता है तथा उनके भीतर स्थित विकारों को अपने साथ लाकर उत्सर्जन अंगों को सौंप देता है, ताकि वह शरीर से बाहर न निकल जायें। शरीर में रक्त संचरण धमनी शिराओं तथा कोशिकाओं द्वारा रहता है। ये सभी शुद्ध रक्त को हृदय स े ले जाकर शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाती है तथा वहाँ से विकार मिश्रित अशुद्ध रक्त को लाकर हृदय को देती रहती हैं। शुद्ध रक्त का रंग चमकदार लाल होता है तथा अशुद्ध रक्त बैंगनी रंग का होता है। हृदय ये निकलकर शुद्ध रक्त जिन नलिकाओं द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में जाता है उन्हें क्रमश: ( Artery) तथा कोशिकाएँ (Capillaries) कहते है तथा अशुद्ध रक्त लौटता हुआ जिन नलिकाओं में होकर हृदय में पहुँचता है, उन्हें शिरा (Veins) कहते हैं।


शिराओं द्वारा लाए गये अशुद्ध रक्त को हृदय शुद्ध होने के लिए फेफड़ो में भेज देता है। वहाँ पर अशुद्ध रक्त बैंगनी रंग का अपने विकारों (Carbon-di-Oxide) की फेफड़ो से बाहर जाने वाली हवा (निःश्वास) के साथ मिलकर मुॅह अथवा नाक के मार्ग से बाय वातावरण में भेज देता है तथा श्वास के साथ भीतर आयी हुई शुद्ध वायु से मिलकर पुनः हृदय में लौट आता है और वहाँ से फिर सम्पूर्ण शरीर के चक्कर लगाने के लिए भेज दिया जाता है। इस क्रम की निरंतर पुनारावृत्ति होती रहती है इसी को रक्त परिभ्रमण किया (Blood Circulation) की जाता है। फेफड़े परिसंचरण अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। फुफ्फुसो में रक्त शुद्ध होता है


फुफ्फुसो को रक्त पहुँचाने का कार्य फुफ्फसीय परिसंचरण तंत्र के द्वारा सम्पन्न होता है। वाहिकाएँ शुद्ध रक्त को हृदय के फुफ्फुसो तक ले जाती है वहाँ रक्त शुद्ध होकर उसे पुनः हृदय में ले जाती है यहाँ ये आक्सीजन युक्त रक्त शेष शरीर में वितरित होता है। फुफ्फुसीय परिसंचरण में 4 से 8 सेकण्ड का समय लगता है। हृदय के दाएँ निलय से फुफ्फुसीय धमनी के द्वारा फुफ फुफ्फुसीय रक्त का आरम्भ होता है। महाधमनी से अनेक छोटी-छोटी शिराएँ निकलती है, जो निरंतर क्रमशः रक्त को ले जाने तथा लाने का कार्य काती है।


रक्त का संचरण दो घेरों में होता है (1) छोटा घेरा तथा (2) बड़ा घेरा छोटा घेरा,


हृदय पल्मोनरी धमनी फेफड़ो तथा पल्मोनरी के सिरे से मिलकर बना है तथा बड़ा घेरा


महाधमनी एवं शरीर भर कोशिकाओं तथा ऊतको से मिलकर तैयार हुआ है। ग्राहक कोष्ठों (Atrium) को आलिन्द तथा क्षेपक कोष्ठों (Venticle) को निलय कहा जाता है। जब अशुद्ध रक्त उर्ध्व तथा अधः महाशिरा द्वारा हृदय के दक्षिण आलिन्द में प्रविष्ट होता है तब वह धीरे-धीरे फैलना आरम्भ कर देता है तथा पूर्ण रूप से भर जाने पर सिकुड़ना शुरू करता है फलस्वरूप आलिन्द के भीतर के दबाव में वृद्धि होकर महाशिरा का मुख बन्द हो जाता है तथा त्रिकपाट खुलकर रक्त दक्षिण निलय में प्रविष्ट हो जाता है दक्षिण निलय भर जाने पर जब सिकुड़ना आरम्भ करता है तब विकपाट बन्द हो जाता है तथा पल्मोनरी धमनी कपाट (Pulmonary Valve) खुल जाता है। उस समय शुद्ध रक्त के दक्षिण निलय से निकल कर पल्मोनरी धमनी (Pulmonary Artery) द्वारा वाम आलिन्द में गिरता है। इस क्रिया को छोटे घेरे में रक्त संचरण (Circulation of Blood through Pulmonary circuit) नाम दिया जाता है।


पल्मोनरी धमनी द्वारा वाम आलिन्द में रक्त के भर जाने पर वह सिकुड़ना प्रारम्भ कर देता है और उसके भीतर दबाव बढ़ जाता है। वाम निलय के भर जाने पर वह भी सिकुड़ना प्रारम्भ कर देता है, तब दविकपर्दी कपाट बन्द हो जाता है तथा महाधमनी कपाट खुल जाता है, फलतः वह शुद्ध रक्त महाधमनी में पहुँच कर सम्पूर्ण शरीर में भ्रमण करने के लिए विभिन्न धमनियों तथा काशिकाओं में जा पहुँचता है। इस प्रकार रक्त सम्पूर्ण शरीर मे घूम कर शिराओं से होता हुआ अन्त में उर्ध्व महाशिरा तथा अधः महाशिरा से होकर दक्षिण आलिन्द में पहुँच जाता है। रक्त भ्रमण की इस क्रिया को बड़े घेरे का रक्त संचरण (Circulation of Blood through larger Circuit ) कहते हैं।